Friday 2 January 2015

श्रीराम द्वारा स्थापित अर्धपीठ शनि मंदिर

निम्न लेख शिवयोगी श्री प्रमोद कुमार महाराज फ़ैजाबाद के सौजन्य से लिखा गया है। 
श्री शनि महाराज की उत्पत्ती 
महर्षि कश्यप का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या अदिति से हुआ। इनका पुत्र सूर्य ! सूर्य का विवाह त्वष्टा की पुत्री संज्ञा से हुआ। संज्ञा को वैवस्वत मनु,यम और पुत्री यमुना हुई। सूर्य के अमित तेज से प्रदीप्त संज्ञा ने अपनी छाया को प्रतिरूप बनाकर सूर्य के पास छोड़ दिया और स्वयं पिता के घर पहुँच गई। पिता ने वापस लौटने को कहा तो,घोड़ी बनकर वह कुरु प्रदेश के वन में रहने लगी। सूर्य के पास रही संज्ञा की छाया को सावर्णि मनु और शनि दो पुत्र हुए। 
छाया अपने पुत्र शनि से अधिक प्रेम करती थी परंतु ,संज्ञा के प्रथम पुत्रो के साथ सौतेला व्यवहार रखती थी। 
संज्ञा पुत्र यम ने खेल खेल में छाया को लात दिखाई तो,क्रोधित होकर छाया ने यम को चरणहीन होने का श्राप दिया। यम ने पिता सूर्य को यह घटना बताई तो,उन्होंने इसका परिहार बता दिया और छाया से भेदभाव का कारन पूछा। छाया ने सत्य घटना का वर्णन किया। 
सूर्य ससुराल आए। सारी घटना स्पष्ट हुई अपने तेज को सहनीय बनाने के त्वष्टा के प्रस्ताव को स्वीकार कर सूर्य ने अनुमती दी। त्वष्टा ने सूर्य को कांट छांटकर सहनीय बनाया। विश्वकर्मा ने उस तेज से सुदर्शन चक्र का निर्माण किया। 
फिर संज्ञा ने नासत्य और दस्त्र नामक अश्विनी कुमारो को जन्म दिया।
यम की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें पितरो का अधिपत्य दिया और धर्म-अधर्म का निर्णय करने का अधिकारी बनाया। यमुना और ताप्ती नदी के रूप में प्रवाहित हुई। शनि महाराज को नव ग्रहो में स्थान मिला। 
शनिदेव दंडनायक मंदगति एवं अधोदृष्टि कैसे हुए ?
शनि को क्रूर गृह माना गया है। शनिदेव की दृष्टी से मानव ही नहीं देवता भी बचने का प्रयास करते है। 
शिवगणों से युध्द कर  परास्त कर देने से शिव और शनि के बिच युध्द हुआ। शिव ने तीसरा नेत्र खोला तो,शनि ने मारक दृष्टी का प्रयोग किया। दोनों संहारक शक्तियों के प्रपात से उत्पन्न ज्योति शनिलोक पर जा गिरी। शनि पर त्रिशूल से प्रहार होते ही शनि अचेत हो गए। सुर्यदेव ने पुत्र स्नेह से जीवनदान की मांग की। शिवजी ने जीवनदान देकर समस्त संकट को हरकर क्रमानुसार दंड देने के लिए दंडनायक बना दिया। शनि के बंधू यम को मृत्यु प्रदान का कार्य सौप दिया। 
बालक पिप्पलाद मुनि के पिता का निधन शनि द्वारा दिए कष्टो के कारन हुआ था।बड़े होकर प्रतिशोध के लिए शनि महाराज के पीछे चल पड़े। अचानक पीपल के वृक्ष पर शनि का वास मिला तब मुनि ने ब्रह्मदण्ड चलाया। जिसके कारन शनि के दोनों पग टूट गए। पीड़ा से कराहकर शनि महाराज ने शिव जी का स्मरण किया। महादेव ने पिप्पलाद की शंका का निराकरण किया। "शनि तो,केवल सृष्टि के नियमो का पालनकर्ता है !" शनि का इसमें कोई दोष नहीं जानकर पिप्पलाद ने उन्हें क्षमा कर दिया। मात्र ब्रह्मदण्ड से पैर टूटने के कारन चाल मंदगति हो गई। 
विवाहयोग्य होनेपर श्रीकृष्ण भक्त शनि का विवाह चित्ररथ की पुत्री गुणवती से करा दिया गया।एकबार उनकी पत्नी पुत्र कामना रखकर उनके पास गई। तब वह श्रीकृष्णार्चन में तल्लीन थे। पत्नी की ओर ध्यान नहीं दिया। इसकारण पत्नी ने कोपित होकर पति को श्राप दिया कि,आपकी दृष्टी सदा के लिए अधो ही रहेगी। इसकारण उनकी दृष्टी अधोमुखी हुई। मात्र जिसपर पड़ी उसका नाश निश्चित ! शनिदेव न्याय देवता है। 
श्रीगणेश के जन्म पर सभी दर्शन करने कैलाश पहुंचे थे। जैसे ही शनि ने  मुख पर दृष्टी डाली तो,मस्तक कटकर धरती पर गिरा। पश्चात हाथी मस्तक उनके धड़ पर लगाकर पुनर्जीवित किया गया। (ब्रह्म वैवर्त पुराण )
26 Jan.2016 


 उज्जैन नरेश विक्रमादित्य ने भरी सभा में शनि महाराज का उपहास किया तब शनि महाराज का भ्रमण उज्जैन पर हो रहा था। अनेक संकटों से घिरे विकलांग हुए,साढ़ेसाती से घिरे विक्रमादित्य महाराज ने जब शनि महाराज की प्रार्थना कर क्षमा मांगी वह स्थान था, " नशरथपुर " उसे आगे अपभ्रंश से " नस्तनपुर " कहा गया है।
     शनि महाराज के साढ़ेसात पीठ है, उज्जैन M.P.,बदरीधाम U.K.,पैठन M.S.,पशुपतेश्वर Nepal, सूर्यकुंड H.P.,द्वारका Guj.,नस्तनपुर M.S.और गंगासागर W.B.; नस्तनपुर अर्ध पीठ है।
      यह स्थान नाशिक जिले के नांदगाव (रे.स्टे.) तहसील में है। नायडोंगरी-नांदगाव रेल्वे स्टेशन के मध्य में यह अतिप्राचीन स्थान है। ऐसा कहा जाता है कि ,प्रभु श्री रामचन्द्र जी को माता कैकयी ने बनवास में भेजने की जब मांग की तब प्रभु को शनि महाराज का प्रकोप आरम्भ हुवा था। इस स्थान प्रभु श्रीराम जी को बाल शनि महाराजजी ने दर्शन दिए। अपने दंडकारण्य बनवास काल प्रवास में प्रभु श्रीराम जी ने बाल शनि महाराज की मूर्ति स्थापित की है। वह छायाचित्र संलग्न
मंदिर का जीर्णोध्दार हो रहा है। इसलिए, मूल मंदिर दर्शन के लिए प्रतीकात्मक मूर्ति पूजन-तेल-उड़द-नमक-काले कपडे अर्पण करने रखी गयी है।

चालीसगाव रेलवे स्टेशन से नांदगाव, बस से जाते समय २४ कि.मी. नस्तनपुर की सीमा पर खोजा किले के पास उतरकर आधा किलो मीटर रेल ब्रिज के निचे से चलकर जाया जा सकता है या नांदगाव से नायडोंगरी जानेवाली टेम्पो से नस्तनपुर जाया जा सकता है। तथा नासिक के ठक्कर बस स्टेंड सी.बी.एस.से दोपहर १२ बजे सीधी नस्तनपुर बस जाती है ३ घंटे की यात्रा है.वापसी में मुंबई आने के लिए चालिसगाव से रात ८-४० को अमृतसर-दादर एक्सप्रेस आराम से मिलती है।
        २१ सप्तम्बर १२ को १९९७ का एक संग्रहित दैनिक वार्ताहर में प्रकाशित लेख के आधारपर

दशरथकृत शनि स्तोत्र
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ।।२५।।
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।२६
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते।।२७
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।।२८
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ।।२९
अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ।।३०
तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ।।३१
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ।।३२
देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।३३
प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ।।३४
अर्थ :- जिनके शरीर का वर्ण कृष्ण नील तथा भगवान् शंकर के समान है, उन शनि देव को नमस्कार है। जो जगत् के लिए कालाग्नि एवं कृतान्त रुप हैं, उन शनैश्चर को बार-बार नमस्कार है।।२५
जिनका शरीर कंकाल जैसा मांस-हीन तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को नमस्कार है। जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट और भयानक आकार है, उन शनैश्चर देव को नमस्कार है।।२६
जिनके शरीर का ढांचा फैला हुआ है, जिनके रोएं बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु सूके शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरुप हैं, उन शनिदेव को बार-बार प्रणाम है।।२७
हे शने ! आपके नेत्र कोटर के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर रौद्र, भीषण और विकराल हैं, आपको नमस्कार है।।२८
वलीमूख ! आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन ! भास्कर-पुत्र ! अभय देने वाले देवता ! आपको प्रणाम है।।२९
नीचे की ओर दृष्टि रखने वाले शनिदेव ! आपको नमस्कार है। संवर्तक ! आपको प्रणाम है। मन्दगति से चलने वाले शनैश्चर ! आपका प्रतीक तलवार के समान है, आपको पुनः-पुनः प्रणाम है।।३०
आपने तपस्या से अपनी देह को दग्ध कर लिया है, आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सदा सर्वदा नमस्कार है।।३१
ज्ञाननेत्र ! आपको प्रणाम है। काश्यपनन्दन सूर्यपुत्र शनिदेव आपको नमस्कार है। आप सन्तुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण हर लेते हैं।।३२
देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं।।३३
देव मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।।३४


एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबलः।
अब्रवीच्च शनिर्वाक्यं हृष्टरोमा च पार्थिवः।।३५
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र ! स्तोत्रेणाऽनेन सुव्रत।
एवं वरं प्रदास्यामि यत्ते मनसि वर्तते।।३६
राजा दशरथ के इस प्रकार प्रार्थना करने पर ग्रहों के राजा महाबलवान् सूर्य-पुत्र शनैश्चर बोले- ‘उत्तम व्रत के पालक राजा दशरथ ! तुम्हारी इस स्तुति से मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं अवश्य दूंगा।।३५-३६

 उवाच-दशरथ
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम्।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित्।।३७
प्रसादं कुरु मे सौरे ! वरोऽयं मे महेप्सितः।
राजा दशरथ बोले- ‘प्रभु ! आज से आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें। बस यही मेरा प्रिय वर है।।३७
शनि उवाच-
अदेयस्तु वरौऽस्माकं तुष्टोऽहं च ददामि ते।।३८
त्वयाप्रोक्तं च मे स्तोत्रं ये पठिष्यन्ति मानवाः।
देवऽसुर-मनुष्याश्च सिद्ध विद्याधरोरगा।।३९
न तेषां बाधते पीडा मत्कृता वै कदाचन।
मृत्युस्थाने चतुर्थे वा जन्म-व्यय-द्वितीयगे।।४०
गोचरे जन्मकाले वा दशास्वन्तर्दशासु च।
यः पठेद् द्वि-त्रिसन्ध्यं वा शुचिर्भूत्वा समाहितः।।४१
न तस्य जायते पीडा कृता वै ममनिश्चितम्।
प्रतिमा लोहजां कृत्वा मम राजन् चतुर्भुजाम्।।४२
वरदां च धनुः-शूल-बाणांकितकरां शुभाम्।
आयुतमेकजप्यं च तद्दशांशेन होमतः।।४३
कृष्णैस्तिलैः शमीपत्रैर्धृत्वाक्तैर्नीलपंकजैः।
पायससंशर्करायुक्तं घृतमिश्रं च होमयेत्।।४४
ब्राह्मणान्भोजयेत्तत्र स्वशक्तया घृत-पायसैः।
तैले वा तेलराशौ वा प्रत्यक्ष व यथाविधिः।।४५
पूजनं चैव मन्त्रेण कुंकुमाद्यं च लेपयेत्।
नील्या वा कृष्णतुलसी शमीपत्रादिभिः शुभैः।।४६
दद्यान्मे प्रीतये यस्तु कृष्णवस्त्रादिकं शुभम्।
धेनुं वा वृषभं चापि सवत्सां च पयस्विनीम्।।४७
एवं विशेषपूजां च मद्वारे कुरुते नृप !
मन्त्रोद्धारविशेषेण स्तोत्रेणऽनेन पूजयेत्।।४८
पूजयित्वा जपेत्स्तोत्रं भूत्वा चैव कृताञ्जलिः।
तस्य पीडां न चैवऽहं करिष्यामि कदाचन्।।४९
रक्षामि सततं तस्य पीडां चान्यग्रहस्य च।
अनेनैव प्रकारेण पीडामुक्तं जगद्भवेत्।।५०

शनि ने कहा- ‘हे राजन् ! यद्यपि ऐसा वर मैं किसी को देता नहीं हूँ, किन्तु सन्तुष्ट होने के कारण तुमको दे रहा हूँ। तुम्हारे द्वारा कहे गये इस स्तोत्र को जो मनुष्य, देव अथवा असुर, सिद्ध तथा विद्वान आदि पढ़ेंगे, उन्हें शनि बाधा नहीं होगी। जिनके गोचर में महादशा या अन्तर्दशा में अथवा लग्न स्थान, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम या द्वादश स्थान में शनि हो वे व्यक्ति यदि पवित्र होकर प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल के समय इस स्तोत्र को ध्यान देकर पढ़ेंगे, उनको निश्चित रुप से मैं पीड़ित नहीं करुंगा।।३८-४१
हे राजन ! जिनको मेरी कृपा प्राप्त करनी है, उन्हें चाहिए कि वे मेरी एक लोहे की मर्ति बनाएं, जिसकी चार भुजाएं हो और उनमें धनुष, भाला और बाण धारण किए हुए हो।* इसके पश्चात् दस हजार की संख्या में इस स्तोत्र का जप करें, जप का दशांश हवन करे, जिसकी सामग्री काले तिल, शमी-पत्र, घी, नील कमल, खीर, चीनी मिलाकर बनाई जाए। इसके पश्चात् घी तथा दूध से निर्मित पदार्थों से ब्राह्मणों को भोजन कराएं। उपरोक्त शनि की प्रतिमा को तिल के तेल या तिलों के ढेर में रखकर विधि-विधान-पूर्वक मन्त्र द्वारा पूजन करें, कुंकुम इत्यादि चढ़ाएं, नीली तथा काली तुलसी, शमी-पत्र मुझे प्रसन्न करने के लिए अर्पित करें।
काले रंग के वस्त्र, बैल, दूध देने वाली गाय- बछड़े सहित दान में दें। हे राजन ! जो मन्त्रोद्धारपूर्वक इस स्तोत्र से मेरी पूजा करता है, पूजा करके हाथ जोड़कर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसको मैं किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होने दूंगा। इतना ही नहीं, अन्य ग्रहों की पीड़ा से भी मैं उसकी रक्षा करुंगा। इस तरह अनेकों प्रकार से मैं जगत को पीड़ा से मुक्त करता हूँ।।।४२-५०।