Wednesday 10 October 2018

नवरात्रि के दिनों में बगलामुखी साधना !

  बगलामुखी तंत्र साधना से लोग वशीकरण, मारण, उच्चाटन आदि कार्यों को बखूबी अंजाम देते हैं। अपने मन की बात को पूर्ण करने के लिए लोग इस तंत्र साधना का प्रयोग करते हैं और तंत्र-मंत्र पर अंधविश्वास करने वाले लोगों का मानना है की इससे बेहतर कोई अन्य विकल्प नहीं है। बगलामुखी मां की आराधना मात्र से साधक के सारे संकट दूर हो जाते हैं और "श्री" वृद्धि होती है।

     तांत्रिक साधना से शत्रुओं का शमन, विवाद,अपने ऊपर हो रहे अकारण अत्याचार से बचाव, किसी को सबक सिखाना हो तो, मुकद्दमा जीतना, असाध्य रोगों से छुटकारा पाना, बंधनमुक्त होना, संकट से उद्धार पाना, नवग्रहों के दोष से मुक्ति के लिए तथा किसी अन्य के टोने को बेअसर करना हो तो बगलामुखी इसके लिए संजिवनी बुटी हैं। तंत्र मंत्र में महारथ हासिल किए जानकार कहते हैं की बाहर के शत्रु जातक को उतना नुकसान नहीं पहुंचाते जितना सगे संबंधी पहुंचाते हैं।

      बगलामुखी साधना को पूर्ण करने के लिए निम्न बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए अन्यथा साधना अपूर्ण रह जाती है।

1. बगलामुखी साधना करते समय पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करें।

2. किसी भी स्त्री को छुना, वार्तालाप करना यहां तक की सपने में भी किसी स्त्री का आना पूर्णत: निषेध है। ऐसा न करने से आपकी साधना खण्डित हो जाएगी।

3. इस साधना को करने के लिए किसी डरपोक व्यक्ति या बच्चे का सहारा नहीं लेना चाहिए। बगलामुखी साधना करते समय साधक को डर, विचित्र आवाजें और खौफनाक आभास भी हो सकते हैं। जिन जातकों को काले अंधेरों और पारलौकिक ताकतों से भय लगता हो, उन्हें यह साधना कदापि नहीं करनी चाहिए।

4. साधना का आरंभ करने से पूर्व अपने गुरू का सिमरण अवश्य करें।

5. मंत्रों का जाप शुक्ल पक्ष में करना अत्यन्त शुभ फल देता है। नवरात्रि के दिनों में बगलामुखी साधना करना सबसे उत्तम फल देता है।

6. उत्तर की ओर मुंह करके बैठने के बाद ही साधना का आरंभ करें।

7. मंत्रों का जाप करते वक्त आपका स्वर अपने आप तेज होता जाएगा। ऐसा होने पर चिंता ना करें बल्कि अपना ध्यान मंत्रों पर केंद्रित रखें।

8. साधना को गुप्त रूप से करें। जब तक साधना पूर्ण न हो जाए किसी से भी इस विषय पर वार्ता न करें।

9. साधना आरंभ करने से पूर्व अपने चारों ओर घी और तेल के दिए जलाएं।

10. साधना करते वक्त पीले रंग के वस्त्र धारण करें और पीले रंग के आसन का ही उपयोग करें।



बगलामुखी मां की आराधना से सारे संकट दूर हो जाते हैं।

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प्रेषित मुहम्मद की मृत्यु नहीं हुई ?

12 September 2014 at 15:02
              प्रेषित मुहम्मद की मृत्यु नहीं हुई , भारत के महाकवि कालिदास के हाथों मारे गए थे ? इतिहास का एक अत्यंत रोचक तथ्य है कि, इस्लाम के पैगम्बर (रसूल) मुहम्मद साहब सन ६३२ में अपनी स्वाभाविक मौत नहीं मरे थे। अपितु भारत के महान साहित्यकार कालिदास के हाथों मारे गए थे।और मदीना में दफनाए गए (?) मुहम्मद की कब्र की जांच की जाए तो, रहस्य से पर्दा उठ सकता है कि, कब्र में मुहम्मद का कंकाल है या लोटा ।



             भविष्य महापुराण (प्रतिसर्ग पर्व) में सेमेटिक मजहबों के सभी पैगम्बरों का इतिहास उनके नाम के साथ वर्णित है। नामों का संस्कृतकरण हुआ है I इस पुराण में मुहम्मद और ईसा मसीह का भी वर्णन आया है। मुहम्मद का नाम "महामद" आया है। मक्केश्वर शिवलिंग का भी उल्लेख आया है। वहीं वर्णन आया है कि सिंधु नदी के तट पर मुहम्मद और कालिदास की भिड़ंत हुई थी और कालिदासने मुहम्मद को जलाकर भस्म कर दिया। ईसा को सलीब पर टांग दिया गया और मुहम्मद भी जलाकर मार दिए गए।



            सेमेटिक मजहब के ये दो रसूल किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे। शर्म के मारे मुसलमान किसी को नहीं बताते कि मुहम्मद जलाकर मार दिए गए।  बल्कि वह यह बताते हैं कि, उनकी मौत कुदरती हुई थीI भविष्य महापुराण (प्रतिसर्ग पर्व,3.3.1-27) में उल्लेख है कि, ‘शालिवाहन के वंशमें १० राजाओं ने जन्म लेकर क्रमश: ५०० वर्ष तक राज्य किया। अन्तिम दसवें राजा भोजराज हुए ।उन्होंने देश की मर्यादा क्षीण होती देख दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया ।उनकी सेना दस हज़ार थी और उनके साथ कालिदास एवं अन्य विद्वान्-ब्राह्मण भी थे ।उन्होंने सिंधु नदी को पार करके गान्धार, म्लेच्छ और काश्मीर के शठ राजाओं को परास्त किया और उनका कोश छीनकर उन्हें दण्डित किया ।उसी प्रसंग में मरुभूमि मक्का पहुँचने पर आचार्य एवं शिष्यमण्डल के साथ म्लेच्छ महामद (मुहम्मद) नामक व्यक्ति उपस्थित हुआ ।



                राजा भोज ने मरुस्थल (मक्का) में विद्यमान महादेव जी का दर्शन किया ।महादेवजी को पंचगव्य मिश्रित गंगाजल से स्नान कराकर चन्दनादि से भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया और उनकी स्तुति की। “हे मरुस्थल में निवास करनेवाले तथा म्लेच्छों से गुप्त शुद्ध सच्चिदानन्द रूपवाले गिरिजापते ! आप त्रिपुरासुर के विनाशक तथा नानाविध मायाशक्ति के प्रवर्तक हैं । मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे अपना दास समझें । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।” इस स्तुति को सुनकर भगवान् शिव ने राजा से कहा- “हे भोजराज ! तुम्हें महाकालेश्वर तीर्थ (उज्जयिनी) में जाना चाहिए ।यह ‘वाह्लीक’ नाम की भूमि है, पर अब म्लेच्छों से दूषित हो गयी है । इस दारुण प्रदेश में आर्य-धर्म है ही नहीं ।महामायावी त्रिपुरासुर यहाँ दैत्यराज बलिद्वारा प्रेषित किया गया है ।वह मानवेतर, दैत्यस्वरूप मेरे द्वारा वरदान पाकर मदमत्त हो उठा है और पैशाचिक कृत्य में संलग्न होकर महामद (मुहम्मद) के नाम से प्रसिद्ध हुआ है ।पिशाचों और धूर्तों से भरे इस देश में हे राजन् ! तुम्हें नहीं आना चाहिए। हे राजा ! मेरी कृपा से तुम विशुद्ध हो ।

             भगवान् शिवके इन वचनों को सुनकर राजा भोज सेना सहित पुनः अपने देश में वापस आ गये ।उनके साथ महामद भी सिंधुतीर पर पहुँच गया ।अतिशय मायावी महामद ने प्रेमपूर्वक राजा से कहा- ”आपके देवता ने मेरा दास्यत्व स्वीकार कर लिया है ।”राजा यह सुनकर बहुत विस्मित हुए। और उनका झुकाव उस भयंकर म्लेच्छ के प्रति हुआ ।उसे सुनकर कालिदास ने रोषपूर्वक महामद से कहा-“अरे धूर्त ! तुमने राजा को वश में करने के लिए माया की सृष्टि की है । तुम्हारे जैसे दुराचारी अधम पुरुष को मैं मार डालूँगा ।“ यह कहकर कालिदास नवार्ण मन्त्र (ॐ ऐंह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) के जप में संलग्न हो गये । उन्होंने (नवार्ण मन्त्र का) दस सहस्र जपकरके उसका दशांश (एक सहस्र) हवन किया । उससे वह मायावी भस्म होकर म्लेच्छ-देवता बन गया ।इससे भयभीत होकर उसके शिष्य वाह्लीकदेश वापस आ गये और अपने गुरु का भस्म लेकर मदहीनपुर (मदीना) चले गए और वहां उसे स्थापित कर दिया जिससे वह स्थान तीर्थ के समान बन गया।

             एक समय रात में अतिशय देवरूप महामद ने पिशाच का देह धारणकर राजा भोज से कहा-”हे राजन् !आपका आर्यधर्म सभी धर्मों में उत्तम है। लेकिन मैं उसे दारुण पैशाच धर्म में बदल दूँगा ।उस धर्म में लिंगच्छेदी (सुन्नत/खतना करानेवाले),शिखाहीन, दढि़यल, दूषित आचरण करनेवाले, उच्चस्वर में बोलनेवाले (अज़ान देनेवाले), सर्वभक्षी मेरे अनुयायी होंगे ।कौलतंत्र के बिना ही पशुओं का भक्षण करेंगे. उनका सारा संस्कार मूसल एवं कुश से होगा ।इसलिये ये जाति से धर्म को दूषित करनेवाले ‘मुसलमान’ होंगे ।इस प्रकार का पैशाच धर्म मैं विस्तृत करूंगा I”‘



एतस्मिन्नन्तरेम्लेच्छ आचार्येण समन्वितः ।महामद इति ख्यातः शिष्यशाखा समन्वितः ।। 5 ।।

नृपश्चैव महादेवं मरुस्थलनिवासिनम् ।गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्यसमन्वितैः ।चन्दनादिभिरभ्यच्र्य तुष्टाव मनसा हरम् ।। 6 ।।

भोजराज उवाचनमस्ते गिरिजानाथ मरुस्थलनिवासिने।त्रिपुरासुरनाशाय बहुमायाप्रवर्तिने ।। 7 ।।

म्लेच्छैर्मुप्ताय शुद्धाय सच्चिदानन्दरूपिणे ।त्वं मां हि किंकरं विद्धि शरणार्थमुपागतम्।। 8 ।।

सूत उवाचइति श्रुत्वा स्तवं देवः शब्दमाह नृपाय तम् ।गंतव्यं भोजराजेन महाकालेश्वरस्थले ।। 9 ।।

म्लेच्छैस्सुदूषिता भूमिर्वाहीका नाम विश्रुता ।आर्यधर्मो हि नैवात्र वाहीके देशदारुणे ।। 10 ।।

वामूवात्र महामायो योऽसौ दग्धो मया पुरा ।त्रिपुरो बलिदैत्येन प्रेषितः पुनरागतः ।। 11 ।।

अयोनिः स वरो मत्तः प्राप्तवान्दैत्यवर्द्धनः ।महामद इति ख्यातः पैशाचकृतितत्परः।। 12 ।।

नागन्तव्यं त्वया भूप पैशाचे देशधूर्तके।मत्प्रसादेन भूपाल तव शुद्धि प्रजायते ।। 13 ।।

इति श्रुत्वा नृपश्चैव स्वदेशान्पु नरागमतः ।महामदश्च तैः साद्धै सिंधुतीरमुपाययौ।। 14 ।।

उवाच भूपतिं प्रेम्णा मायामदविशारदः ।तव देवो महाराजा मम दासत्वमागतः ।। 15 ।।

इति श्रुत्वा तथा परं विस्मयमागतः ।। 16 ।।

म्लेच्छधनें मतिश्चासीत्तस्यभूपस्य दारुणे ।। 17 ।।

तच्छ्रुत्वा कालिदासस्तु रुषा प्राह महामदम् ।माया ते निर्मिता धूर्त नृपमोहनहेतवे ।। 18 ।।

हनिष्यामिदुराचारं वाहीकं पुरुषाधनम् ।इत्युक्त् वा स जिद्वः श्रीमान्नवार्णजपतत्परः ।। 19।।

जप्त्वा दशसहस्रंच तदृशांश जुहाव सः ।भस्म भूत्वा समायावी म्लेच्छदेवत्वमागतः ।। 20 ।।

मयभीतास्तु तच्छिष्या देशं वाहीकमाययुः ।गृहीत्वा स्वगुरोर्भस्म मदहीनत्वामागतम्।। 21 ।।

स्थापितं तैश्च भूमध्येतत्रोषुर्मदतत्पराः ।मदहीनं पुरं जातं तेषां तीर्थं समं स्मृतम्।। 22 ।।

रात्रौ स देवरूपश्च बहुमायाविशारदः ।पैशाचं देहमास्थाय भोजराजं हि सोऽब्रवीत् ।। 23 ।।

आर्यधर्मो हि ते राजन्सर्वधर्मोत्तमः स्मृतः ।ईशाख्या करिष्यामि पैशाचं धर्मदारुणम् ।। 24 ।।

लिंगच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रुधारी स दूषकः ।उच्चालापी सर्वभक्षीभविष्यति जनो मम।। 25 ।।

विना कौलं च पशवस्तेषां भक्षया मता मम ।मुसलेनेव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति ।। 26 ।।

तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः ।इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः ।। 27 ।।’

(भविष्यमहापुराणम् (मूलपाठ एवं हिंदी-अनुवादसहित), अनुवादक: बाबूराम उपाध्याय, प्रकाशक: हिंदी-साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग; ‘कल्याण’ (संक्षिप्त भविष्यपुराणांक),प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर, जनवरी,1992 ई.)



           कुछ विद्वान कह सकते हैं कि, महाकवि कालिदास तो प्रथम,शताब्दी के शकारि विक्रमादित्य के समय हुए थे और उनके नवरत्नों में से एक थे, तो हमें ऐसा लगता है कि कालिदास नाम के एक नहीं बल्कि अनेक व्यक्तित्व हुए हैं,बल्कि यूं कहा जाए की कालिदास एक ज्ञानपीठ का नाम है, जैसे वेदव्यास, शंकराचार्य इत्यादि.विक्रम के बाद भोज के समय भी कोई कालिदास अवश्य हुए थे।  इतिहास तो कालिदास को छठी-सातवी शती (मुहम्मद के समकालीन) में ही रखता है। कुछ विद्वान "सरस्वती कंठाभरण", समरांगण सूत्रधार","युक्ति कल्पतरु"-जैसे ग्रंथों के रचयिता राजा भोजको भी ९वी से ११वी शताब्दी में रखते हैं जो गलत है.भविष्यमहापुराण में परमार राजाओं की वंशावली दी हुई है। इस वंशावली से भोज विक्रम की छठी पीढ़ी में आते हैं और इस प्रकार छठी-सातवी शताब्दी (मुहम्मद के समकालीन) में ही सिद्ध होते हैं।

कालिदास त्रयी-एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित्।शृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदास त्रयी किमु॥

(राजशेखर का श्लोक-जल्हण की सूक्ति मुक्तावली तथा हरि कवि की सुभाषितावली में)
इनमें प्रथम नाटककार कालिदास थे जो अग्निमित्र या उसके कुछ बाद शूद्रक के समय हुये।                 
द्वितीय महाकवि कालिदास थे। जो उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य के राजकवि थे।इन्होंने रघुवंश, मेघदूत तथा कुमारसम्भव-ये ३ महाकाव्य लिखकर ज्योतिर्विदाभरण नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा। इसमें विक्रमादित्य तथा उनके समकालीन सभी विद्वानों का वर्णन है।
अन्तिम कालिदास विक्रमादित्य के ११ पीढ़ी बाद के भोजराज के समय थे तथा आशुकवि और तान्त्रिक थे-इनकी चिद्गगन चन्द्रिका है तथा कालिदास और भोजके नाम से विख्यात काव्य इनके हैं।अधिक जानकारी के लिए

लेखक Jay Vyas पेज लिंक https://www.facebook.com/jay.vyas.391?fref=hovercard