धर्मशास्त्र का स्वरुप,कार्य,दृष्टिकोण,पध्दती,महत्त्व और मर्यादा का विश्लेषण ग्रीक शब्द के अनुसार थिओलोजी अर्थात ईश्वर विषयक चर्चा का शास्त्र !
अनेकेश्वरवाद में अनेक उपास्य देवताओ का अंतर्भाव होता है। तदनुसार उनकी उपासना,पूजा,प्रार्थना पध्दति,मुर्तिशास्त्र,पौराणिक कथा निर्माण होती है। व्रत वैकल्य पाप से मुक्ति तथा पुण्य कर्म से मोक्ष की कामना की जाती है। सभी दैवत एक ही परमेश्वर या परमात्मा की स्वरूपे है ऐसी श्रध्दा " एको देवः सर्वभूतेषु गुढः " इस भाव से प्रकट होती है तब एकेश्वरवाद प्रकट होता है।
अरब्स्थान के सनातनी अनेक कबीलाई समूह मक्का को धार्मिक और आर्थिक केंद्र बनाकर क्षेत्र में व्यापार करते थे। मक्का में 100 योजन ऊँचे शिवलिंग के निकट 355 कबीलाई मुर्तिया थी। रोमनो ने यहुदियोंको धर्मान्तरित करने के लिए अमानवीय अत्याचार किये तब बचकर निकले यहूदी दमिश्क में संगठित हुए थे।वही संगठन और धार्मिक प्रवचन होते थे।इस्लाम के कथित प्रेषित उस समय दमिश्क में मालिक व्यापारी की मृत्यु के पश्चात् रुका था और नियमित प्रवचन सुनता था।रोमनो के अमानवीय अत्याचार से अरब्स्थान को बचाने के लिए सभी कबीलाई समूह को एकसंघ करने के लिए एकेश्वरवाद का प्रचार किया विरोध पर तलवार के बल पर 300 फिट ऊँचे शिवलिंग और उसके आसपास की भिन्न कबीलाई 355 मुर्तियोंको एकत्रित कर " काब्बा " बनाया उसकी परिक्रमा करने की परिपाठी डालकर वही पितरोंकी मुक्ति के लिए क्षौर (मुंडन) का नियम बनाया।अलिफ़+लाम+मीम=ॐ को "हरुफे मुक्तआत" कहकर ग्रंथिय धर्म परंपरा स्थापित की। एकेश्वरवाद स्थापित करने की यह सामाजिक उत्क्रांति थी इसे रोमनो के आक्रमण के भय से संगठित किया और उनके आक्रमण के पूर्व, विस्तारवादी आक्रमण का या साम्राज्यवाद का बीजारोपण हुवा। कबीलाई परंपरा को धर्माज्ञा कहकर प्रस्थापित किया गया।
सनातन विश्व धर्म था; उसमे अनेक देवतावाद,एक ईश्वरवाद,सर्वेश्वरवाद और केवलवाद आदि स्थित्यंतर हुए।कबीलाई धर्म (ट्रायबल), राष्ट्रधर्म और विश्वधर्म ऐसे परिवर्तन दिखाई देते है।श्रेष्ठ धर्म प्रणालीयो में प्राचीन कालबाह्य प्रथा प्रकट होती है। धर्म का उगम जादू ,यातुविद्या में से हुवा होगा,अंधश्रध्दा के रूप में शेष है फिर भी सनातन धर्मं की मौलिक श्रेष्ठता मानव कल्याणकारी नैतिक मुल्योंके कारण "विश्व धर्म" कहने के योग्य है। श्रध्दा,परलोक निष्ठां,मानव कल्याणकारी प्रेरणा,आत्मिक अनुभूति की प्रत्यक्षता के कारण अंतर्बाह्य पावित्र्यभाव और अध्यात्मिक सत्ता के विषय में आस्था प्रकट होती है। डॉ.राधाकृष्णन कहते है, तौलनिक धर्म में सनातनी अंधश्रध्दा को स्थान नहीं परन्तु,वह अश्रध्दा बढाता नहीं।मानव की श्रध्दा को दृष्टी प्रदान करना और धर्म जीवन सहिष्णु करना तौलनिक धर्म का अप्रत्यक्ष कार्य है। (ईस्ट एंड वेस्ट इन रिलिजन,पृ.19)
धर्म के तत्वज्ञान का अभ्यासक धर्म,संस्कृति,धर्मशास्त्र को अंधश्रध्दा से नहीं सश्रध्द भावना से देखता है।ईश्वरी अस्तित्व-कृपा और प्रेम के अनुभव संकलित कर महानुभावो के ध्येय, उनकी उपासना, त्याग से प्रेरणा लेते है। दैन्य,दुःख,पाप से दूर रहने या उसके निर्मूलन के साधन धर्माचरण में प्रत्युत होते है। परमसत्य का अनुभव लेने साधना करते समय विवेक वैराग्य,शमदम आदि का पालन,मुमुक्षुत्व के साथ योगाभ्यास, निष्काम कर्माचरण का अंतर्भाव करते है। प्रापंचिक या सार्वजनिक व्रत-त्यौहार में सामुदायिक पूजा-पाठ , प्रार्थना,तीर्थस्थल यात्रा का हेतु धार्मिक सद्गुण का विकास हो,उसकी अनुभूति होती रहे यही भावना है।वास्तविक धर्म और अधर्म क्या है ? इनका आकलन ठीक से न होने के कारण धार्मिक क्षेत्र में विभिन्न समस्या और संघर्ष उत्पन्न हुए है।स्वमत समर्थन और परमत खंडन करते समय ह्रुषी-मुनि-आचार्य-संत-महात्माओ ने सर्व समाज कल्याण की दृष्टी से जो कार्य किया है उसका अवलोकन करना चाहिए।
धर्म का संस्कृति के अन्य घटकों से, जादू या यातुविद्या,विज्ञान,निति,कला और अध्यात्म से सम्बन्ध है। मनुष्य का धार्मिक जीवन का आरंभ संस्कृति और परम्पराओ से जुडा है। धर्म व विज्ञान का उगमस्थान यातुविद्या से सम्बंधित है। जादू मुख्यतः भ्रम मूलक क्रिया है इससे विपरीत यातुविद्या अर्थात 'अभिचार विद्या' ऐहिक-भौतिक पूर्ति के लिए निसर्ग शक्तियोंको वशीभूत कर किये जानेवाली गूढ़ रहस्यात्मक विधि विधानात्मक क्रिया।
' एन्सायक्लोपीडिया ऑफ़ रिलिजन एंड एथिक्स ' भाग 8 पृष्ठ 245-321 में जादू-यातुविद्या पर बहुमोल संशोधन हुवा है। विश्व के सभी प्रमुख धर्म और प्रमुख मानवी संस्कृति में यातुविद्या का प्रभाव प्राचीन काल से है और धर्मजीवन इस विद्या से सम्मोहित था।रोगनिवारण,विषहरण,वशीकरण,धान की पैदावार,अधिकार प्राप्ति,युध्द में विजय,शत्रुनाश,द्रव्यलाभ आदि अनेक हेतु इस विद्या का प्रयोग होता था। इसकी भूमिका ऐहिक कामना पूर्ति की, उपयुक्तता वादी, सुखवादी होकर इसमें धर्म और नीति का स्थान गौण है। जारण-मारण-उच्चाटन-स्वरक्षा-आक्रमण आदि अनेकविध उद्दिष्ट हो सकते है। अविकसित-ग्रामीण धार्मिक जीवन का नेतृत्व तांत्रिक-मान्त्रिक करते है।गंडा-ताबीज-वनस्पति-पत्थर अविकसित धार्मिक जीवन के धर्म साधन बन जाते है।
आदि वेद में यातुधान शब्द है जो उत्तर कालीन वांग्मय में 'राक्षस' वाचक बना। ह्रुषियोंको 'माया' विश्व की विधायक-रचनात्मक शक्ति मान्य है। उत्तरकालीन तत्वज्ञान की शक्ति उपासना,प्रकृतिवाद, त्रिगुणात्मिका माया का दृष्टिकोण विकसित हुवा।ह्रुषियो को काली जादू मान्य नहीं, राक्षसी-संहारक-पीड़ादायक विद्या का धिक्कार किया है।क्योंकि,उनके मत विश्वात्मक नैतिक मूल्योंपर श्रध्दासीन है और नीति के अधिष्ठान के बिना धर्म बांझ और दृष्टिहीन है।उपनिषदों में अंतर्भूत नीति व अध्यात्मशास्त्र के विकास के बीज यातुविद्या में नहीं। शिक्षा-संस्कार और संस्कृति के अध्ययन से अंधश्रध्दा का निर्मूलन होता है।मनुष्य का मन स्वभावतः अंधश्रध्दा शरण होता है। ग्रामीण मानसिकता अदृश्य योनी की पीड़ाकारक शक्ति से रक्षा हेतु यातुविद्या के अधीन हो जाती है।
मानव से श्रेष्ठ दिव्य शक्ति से मानव तथा प्रकृति का नियंत्रण होता है। उसकी प्रार्थना-पूजा-स्तोत्र पठन- उपासना-याज्ञिक कर्म शरणागत होकर श्रध्दा-प्रेमभाव से करने से अनुभूति मिलती है। ईश्वर से शरण जाने के लिए सदगुरू की आवश्यकता होती है,आदरभाव-पावित्र्य भाव-कृतज्ञता वृत्ति से अधिकाधिक प्राप्ति होती है। क्षुद्र देवतो की, राक्षसी, पाशवी शक्ति की उपासना के धर्म को ' साधन मूल्य' कहते है।
फ्रेझर के अनुसार, ' जादू विज्ञान की मायावी बहन है।' मेरेट कहते है,विज्ञान का चमत्कार पर विश्वास नहीं होता,विज्ञान का संबंध प्राकृतीक शक्ति से होता है उसका नियंत्रण प्रायोगिक उपकरणों से संचालित होता और जादू का नियंत्रण अतींद्रिय शक्ति के मांत्रिक से होता है।
प्राचीन काल में मानवी जीवन निसर्गाधीन था। ज्ञान संपादन के साधन कम थे इसलिए, ज्ञानशक्ति का विकास हो न पाया उसकी सोच/ दृष्टी संकुचित अंधश्रध्द रही। इसलिए प्राचीन जीवन में धर्म-जादू-विज्ञान का मिश्रण दिखाई देता है। उस काल में धर्म जादू का तात्विक अंग था तो,जादू धर्म का व्यवहारिक, उपयोजनात्मक अंग था। जैसे जैसे अंधश्रध्दा कम होती गयी उसके प्रमाण में धर्म शुध्द होकर विज्ञान क्षेत्र स्वतंत्र हुवा। विकसित धर्म में यातुविद्या को अनैतिक,दुष्ट,अधर्मकारक समाज विरोधी,समाज घातक माना गया।
धर्म और विज्ञान का उगम यातुविद्या से हुवा या नहीं यह वादग्रस्त विषय है। फिर भी यातुविद्या दोनों की जननी है ; ऐसा मानने में भी मतभेद है। आज की स्थिति में मानवी जीवन में धार्मिक वैज्ञानिक वर्तन में 'अंधश्रध्दा' शेष है। जादूटोना-अभिचार प्रयोग को आज भी स्थान है। क्यों की,विज्ञान कितना भी प्रगत हो जाये,धर्म पर जिनकी आस्था है वह अतीन्द्रिय शक्ति का शेष अनुभव करते है। प्रगत मानवी जीवन में ' ईश्वर ' को नैतिक अधिष्ठान प्राप्त है। इस जीवन को सामाजिक प्रतिष्ठा है और निजी स्तर पर अध्यात्मिक अनुभूति का आधार धर्म होता है।
श्री पञ्च रामानंदीय निर्मोही अखाडा के नागा संत समर्थ श्री रामदास स्वामी जी ने अध्यात्म को केन्द्रित करते हुए 'वैज्ञानिक संशोधन पध्दति' विकसित की है। " श्री मत दासबोध " तथा " मनाचे श्लोक " इन ग्रंथो ने अपसमज,अपश्रध्दा,प्रमाद,भ्रम-आभास-चिंता-क्लेष-भय से मनुष्य की ज्ञानप्रक्रिया को शुध्द किया है। निजी दुजाभाव-पूर्वग्रह,मनुष्य सुलभ अपसमज,अशुभ संकेत इनसे मुक्त कर आतंरिक शोध के द्वारा अंतर्मल को शुध्द किया है।निष्क्रिय प्रारब्धवाद-दैववाद को पौरुषयुक्त-पराक्रमयुक्त जीवन जीने की विधायक वृत्ती (मानसिकता) मनुष्य में विज्ञानं से पूर्व संतो ने निर्माण की। किसी भी प्रकार की श्रध्दा जब सांप्रदायिक या पंथनिष्ठ बन जाती है तब वह अंधश्रध्दा बनने का संभव होता है।इसलिए श्रध्दा को सद्विवेक बुध्दी के सहकार्य से और व्यापक,सर्वसमावेशक सहिष्णु दृष्टिकोण की साथ मिली तो सत्य " सनातन " है क्यों की वह " नित्य नूतन " है। अपने निजी स्वभावधर्म के अनुसार तथा ईश्वरी अनुग्रह के अनुसार अनुभूति मिलती है। केवल बुध्दिवाद से समस्या का समाधान, यह आग्रह भी वास्तविक बुध्दिवाद का अभाव दर्शाता है। और यह भी एक अंधश्रध्दा ही है।
कार्याकारण भाव तथा तात्विक भूमिका का अधिष्ठान,दृष्टिकोण,परंपरा का वर्तन को अंधश्रध्दा नहीं कहा जा सकता। ईश्वर अस्तित्व, संतो के अनुभव पर आत्मा-परमात्मा,अमरत्व,परलोक कल्पना,पूर्व जन्म और पुनर्जन्म, कर्माधारित्त पाप-पुण्य, विवेक को अंधश्रध्दा नहीं कही जा सकता। बुध्दिवाद व विज्ञान के नामपर धर्म के आधारभूत गृहीत तत्वों का तात्विक विश्लेषण किये बिना उसका उच्छेदन करना बुध्दिवादी विचारप्रक्रिया नहीं है। सभी धार्मिक श्रध्दा अंधश्रध्दा ही होती है ? ऐसा एकांगी,पूर्वग्रहदुषित मतप्रदर्शन कर सनातनी धार्मिक श्रध्दाओंको नकारना हिंदुत्व पर अन्याय है।
विज्ञान से अधिक धर्म का निकट का सम्बन्ध नीति से है। इसमें मानवी आचार संहिता लागु होती है। मात्र नीति का किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है ऐसे अधर्म को धर्म नहीं कहा जा सकता।व्यक्ति-समाज को ध्येयदृष्टि प्रदान करना,आचार धर्म का नियमन-नियंत्रण-मार्गदर्शन करना यह नीति का प्रधान कार्य है। प्रगतिशील मानव को नैतिकता का आदरभाव होता है। नैतिक वर्तन के लिए कोई सक्ती-दबाव या भय नहीं होता। सद्विवेक बुध्दी को आदेश या समाजहित की दृष्टी से नैतिकता के प्रति पावित्र्यभाव-आदरभाव प्रकट होता है। धर्मग्रन्थ,इष्टदेव, धर्मगुरु,धर्मपीठ,धर्म क्षेत्र,तीर्थक्षेत्र को ईश्वरी श्रध्दा से स्वीकार करने के कारन नैतिक वर्तन में परिवर्तन होता है,प्रेरणा मिलती है। परहित बुध्दी,भूतदया,परोपकार,मैत्री,करुणा जैसे नैतिक वर्तन की प्रेरणा मिलती है।
प्राचीन मानवी जीवन में नीति का अभाव था। उनकी श्रध्दा शक्ति को अधिसत्ता प्रदान कर अनुशासन के लिए धार्मिक आदेश की अवज्ञा से पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का चक्र बना। परम्परानिष्ठ वर्तन विवेकशुध्द नीति से भिन्न होता है। विभिन्न प्रकार के यज्ञ याग,होम-हवन,व्रत-उपवास,दान-धर्म में नैतिक मूल्यों की अनदेखी नहीं होती। यह सभी कार्य निष्काम बुध्दी से किये जाये तो हरेक विधि विधान का फल तो मिलना ही है परन्तु, "..... फल प्राप्त्यर्थं " संकल्प से विवेक कार्य अंधश्रध्द बन जाता है। दुसरी ओर धार्मिक आस्था के कारन स्वयं प्रेरणा,आत्मीयता से की गई कृति से धर्म भाव और नैतिक विवेक का अधिष्ठान तयार होता है और निति धार्मिक अनुभूति के विकास का श्रेष्ठ साधन बन जाती है।
सनातन धर्म में भेद बुध्दी नहीं है। सद्धर्म में सर्वहित बुध्दी प्रमाण मानी गयी है। केवल मनुष्य के ही लिए नहीं अपितु,सजीव-निर्जीव सृष्टि से प्रेम, मित्रता,अंतःकरण विकास-शुध्दी का प्रयास कहा गया है। अन्य धर्मो में ऐसा नहीं है, परधर्मियो से असहिष्णु-द्वेष युक्त वर्तन जो अधार्मिक है। परन्तु,धर्म के नाम पर मानवी हत्या,पशु हत्या करने से भूतदया-करुणा का अव्हेर होता है। सनातनी संत-धर्माचार्यो ने मनुष्य की प्रज्ञा- नैतिक विवेकशक्ति को आवाहन किया है।उन्होंने निजी-सामाजिक,धार्मिक-धर्मिकेतर व्यवहार में ज्ञाननिष्ठ, नीतिमान रहनेपर भार दिया है।पूजा,प्रार्थना,व्रताचरण इन बाह्य साधनों के अतिरिक्त, नीति मूल्यों पर आधारित " अंतरंग साधना " जो अनेकेश्वर के स्थानपर एक मुख्य देव ( ईश्वर ) का परिचय कैसे करे, आत्माराम का परिचय दिया है। " एको वशी सर्वभुतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति " (कठ.2.2.12) एक बार यह दृष्टी प्राप्त हुई तो धर्म और नीति का द्वैत भाव दूर हो जाता है। अन्य को पीड़ा न पहुंचना,हिंसा न करना, 'सर्वभुती भगवद्भाव' रखना,करुनायुक्त अंतःकरण से सहकार्य करना यह धर्म के लक्षण है। संत-महात्माओ में मानवी कल्याण की दृष्टी से शाश्वत नैतिक मूल्यों का परिशीलन करते हुए मनुष्य को सत्य धर्म की प्राप्ति होने लगती है। प्राचीन प्राकृतिक शक्तियों के अघोरी उपायों के विकल्प के रूप में ईश्वरीय शक्ति की बहिर्मुख भक्ति को अंतर्मुखी करनेवाली उपासना से विवेकनिष्ठ नीतिधर्म का निर्माण होता है।
सन्दर्भ:-धर्माचे तत्वज्ञान-ले. श्री.ज.वा.जोशी कांटिनेंटल प्रकाशन-पुणे से साभार
अनेकेश्वरवाद में अनेक उपास्य देवताओ का अंतर्भाव होता है। तदनुसार उनकी उपासना,पूजा,प्रार्थना पध्दति,मुर्तिशास्त्र,पौराणिक कथा निर्माण होती है। व्रत वैकल्य पाप से मुक्ति तथा पुण्य कर्म से मोक्ष की कामना की जाती है। सभी दैवत एक ही परमेश्वर या परमात्मा की स्वरूपे है ऐसी श्रध्दा " एको देवः सर्वभूतेषु गुढः " इस भाव से प्रकट होती है तब एकेश्वरवाद प्रकट होता है।
अरब्स्थान के सनातनी अनेक कबीलाई समूह मक्का को धार्मिक और आर्थिक केंद्र बनाकर क्षेत्र में व्यापार करते थे। मक्का में 100 योजन ऊँचे शिवलिंग के निकट 355 कबीलाई मुर्तिया थी। रोमनो ने यहुदियोंको धर्मान्तरित करने के लिए अमानवीय अत्याचार किये तब बचकर निकले यहूदी दमिश्क में संगठित हुए थे।वही संगठन और धार्मिक प्रवचन होते थे।इस्लाम के कथित प्रेषित उस समय दमिश्क में मालिक व्यापारी की मृत्यु के पश्चात् रुका था और नियमित प्रवचन सुनता था।रोमनो के अमानवीय अत्याचार से अरब्स्थान को बचाने के लिए सभी कबीलाई समूह को एकसंघ करने के लिए एकेश्वरवाद का प्रचार किया विरोध पर तलवार के बल पर 300 फिट ऊँचे शिवलिंग और उसके आसपास की भिन्न कबीलाई 355 मुर्तियोंको एकत्रित कर " काब्बा " बनाया उसकी परिक्रमा करने की परिपाठी डालकर वही पितरोंकी मुक्ति के लिए क्षौर (मुंडन) का नियम बनाया।अलिफ़+लाम+मीम=ॐ को "हरुफे मुक्तआत" कहकर ग्रंथिय धर्म परंपरा स्थापित की। एकेश्वरवाद स्थापित करने की यह सामाजिक उत्क्रांति थी इसे रोमनो के आक्रमण के भय से संगठित किया और उनके आक्रमण के पूर्व, विस्तारवादी आक्रमण का या साम्राज्यवाद का बीजारोपण हुवा। कबीलाई परंपरा को धर्माज्ञा कहकर प्रस्थापित किया गया।
सनातन विश्व धर्म था; उसमे अनेक देवतावाद,एक ईश्वरवाद,सर्वेश्वरवाद और केवलवाद आदि स्थित्यंतर हुए।कबीलाई धर्म (ट्रायबल), राष्ट्रधर्म और विश्वधर्म ऐसे परिवर्तन दिखाई देते है।श्रेष्ठ धर्म प्रणालीयो में प्राचीन कालबाह्य प्रथा प्रकट होती है। धर्म का उगम जादू ,यातुविद्या में से हुवा होगा,अंधश्रध्दा के रूप में शेष है फिर भी सनातन धर्मं की मौलिक श्रेष्ठता मानव कल्याणकारी नैतिक मुल्योंके कारण "विश्व धर्म" कहने के योग्य है। श्रध्दा,परलोक निष्ठां,मानव कल्याणकारी प्रेरणा,आत्मिक अनुभूति की प्रत्यक्षता के कारण अंतर्बाह्य पावित्र्यभाव और अध्यात्मिक सत्ता के विषय में आस्था प्रकट होती है। डॉ.राधाकृष्णन कहते है, तौलनिक धर्म में सनातनी अंधश्रध्दा को स्थान नहीं परन्तु,वह अश्रध्दा बढाता नहीं।मानव की श्रध्दा को दृष्टी प्रदान करना और धर्म जीवन सहिष्णु करना तौलनिक धर्म का अप्रत्यक्ष कार्य है। (ईस्ट एंड वेस्ट इन रिलिजन,पृ.19)
धर्म के तत्वज्ञान का अभ्यासक धर्म,संस्कृति,धर्मशास्त्र को अंधश्रध्दा से नहीं सश्रध्द भावना से देखता है।ईश्वरी अस्तित्व-कृपा और प्रेम के अनुभव संकलित कर महानुभावो के ध्येय, उनकी उपासना, त्याग से प्रेरणा लेते है। दैन्य,दुःख,पाप से दूर रहने या उसके निर्मूलन के साधन धर्माचरण में प्रत्युत होते है। परमसत्य का अनुभव लेने साधना करते समय विवेक वैराग्य,शमदम आदि का पालन,मुमुक्षुत्व के साथ योगाभ्यास, निष्काम कर्माचरण का अंतर्भाव करते है। प्रापंचिक या सार्वजनिक व्रत-त्यौहार में सामुदायिक पूजा-पाठ , प्रार्थना,तीर्थस्थल यात्रा का हेतु धार्मिक सद्गुण का विकास हो,उसकी अनुभूति होती रहे यही भावना है।वास्तविक धर्म और अधर्म क्या है ? इनका आकलन ठीक से न होने के कारण धार्मिक क्षेत्र में विभिन्न समस्या और संघर्ष उत्पन्न हुए है।स्वमत समर्थन और परमत खंडन करते समय ह्रुषी-मुनि-आचार्य-संत-महात्माओ ने सर्व समाज कल्याण की दृष्टी से जो कार्य किया है उसका अवलोकन करना चाहिए।
धर्म का संस्कृति के अन्य घटकों से, जादू या यातुविद्या,विज्ञान,निति,कला और अध्यात्म से सम्बन्ध है। मनुष्य का धार्मिक जीवन का आरंभ संस्कृति और परम्पराओ से जुडा है। धर्म व विज्ञान का उगमस्थान यातुविद्या से सम्बंधित है। जादू मुख्यतः भ्रम मूलक क्रिया है इससे विपरीत यातुविद्या अर्थात 'अभिचार विद्या' ऐहिक-भौतिक पूर्ति के लिए निसर्ग शक्तियोंको वशीभूत कर किये जानेवाली गूढ़ रहस्यात्मक विधि विधानात्मक क्रिया।
' एन्सायक्लोपीडिया ऑफ़ रिलिजन एंड एथिक्स ' भाग 8 पृष्ठ 245-321 में जादू-यातुविद्या पर बहुमोल संशोधन हुवा है। विश्व के सभी प्रमुख धर्म और प्रमुख मानवी संस्कृति में यातुविद्या का प्रभाव प्राचीन काल से है और धर्मजीवन इस विद्या से सम्मोहित था।रोगनिवारण,विषहरण,वशीकरण,धान की पैदावार,अधिकार प्राप्ति,युध्द में विजय,शत्रुनाश,द्रव्यलाभ आदि अनेक हेतु इस विद्या का प्रयोग होता था। इसकी भूमिका ऐहिक कामना पूर्ति की, उपयुक्तता वादी, सुखवादी होकर इसमें धर्म और नीति का स्थान गौण है। जारण-मारण-उच्चाटन-स्वरक्षा-आक्रमण आदि अनेकविध उद्दिष्ट हो सकते है। अविकसित-ग्रामीण धार्मिक जीवन का नेतृत्व तांत्रिक-मान्त्रिक करते है।गंडा-ताबीज-वनस्पति-पत्थर अविकसित धार्मिक जीवन के धर्म साधन बन जाते है।
आदि वेद में यातुधान शब्द है जो उत्तर कालीन वांग्मय में 'राक्षस' वाचक बना। ह्रुषियोंको 'माया' विश्व की विधायक-रचनात्मक शक्ति मान्य है। उत्तरकालीन तत्वज्ञान की शक्ति उपासना,प्रकृतिवाद, त्रिगुणात्मिका माया का दृष्टिकोण विकसित हुवा।ह्रुषियो को काली जादू मान्य नहीं, राक्षसी-संहारक-पीड़ादायक विद्या का धिक्कार किया है।क्योंकि,उनके मत विश्वात्मक नैतिक मूल्योंपर श्रध्दासीन है और नीति के अधिष्ठान के बिना धर्म बांझ और दृष्टिहीन है।उपनिषदों में अंतर्भूत नीति व अध्यात्मशास्त्र के विकास के बीज यातुविद्या में नहीं। शिक्षा-संस्कार और संस्कृति के अध्ययन से अंधश्रध्दा का निर्मूलन होता है।मनुष्य का मन स्वभावतः अंधश्रध्दा शरण होता है। ग्रामीण मानसिकता अदृश्य योनी की पीड़ाकारक शक्ति से रक्षा हेतु यातुविद्या के अधीन हो जाती है।
मानव से श्रेष्ठ दिव्य शक्ति से मानव तथा प्रकृति का नियंत्रण होता है। उसकी प्रार्थना-पूजा-स्तोत्र पठन- उपासना-याज्ञिक कर्म शरणागत होकर श्रध्दा-प्रेमभाव से करने से अनुभूति मिलती है। ईश्वर से शरण जाने के लिए सदगुरू की आवश्यकता होती है,आदरभाव-पावित्र्य भाव-कृतज्ञता वृत्ति से अधिकाधिक प्राप्ति होती है। क्षुद्र देवतो की, राक्षसी, पाशवी शक्ति की उपासना के धर्म को ' साधन मूल्य' कहते है।
फ्रेझर के अनुसार, ' जादू विज्ञान की मायावी बहन है।' मेरेट कहते है,विज्ञान का चमत्कार पर विश्वास नहीं होता,विज्ञान का संबंध प्राकृतीक शक्ति से होता है उसका नियंत्रण प्रायोगिक उपकरणों से संचालित होता और जादू का नियंत्रण अतींद्रिय शक्ति के मांत्रिक से होता है।
प्राचीन काल में मानवी जीवन निसर्गाधीन था। ज्ञान संपादन के साधन कम थे इसलिए, ज्ञानशक्ति का विकास हो न पाया उसकी सोच/ दृष्टी संकुचित अंधश्रध्द रही। इसलिए प्राचीन जीवन में धर्म-जादू-विज्ञान का मिश्रण दिखाई देता है। उस काल में धर्म जादू का तात्विक अंग था तो,जादू धर्म का व्यवहारिक, उपयोजनात्मक अंग था। जैसे जैसे अंधश्रध्दा कम होती गयी उसके प्रमाण में धर्म शुध्द होकर विज्ञान क्षेत्र स्वतंत्र हुवा। विकसित धर्म में यातुविद्या को अनैतिक,दुष्ट,अधर्मकारक समाज विरोधी,समाज घातक माना गया।
धर्म और विज्ञान का उगम यातुविद्या से हुवा या नहीं यह वादग्रस्त विषय है। फिर भी यातुविद्या दोनों की जननी है ; ऐसा मानने में भी मतभेद है। आज की स्थिति में मानवी जीवन में धार्मिक वैज्ञानिक वर्तन में 'अंधश्रध्दा' शेष है। जादूटोना-अभिचार प्रयोग को आज भी स्थान है। क्यों की,विज्ञान कितना भी प्रगत हो जाये,धर्म पर जिनकी आस्था है वह अतीन्द्रिय शक्ति का शेष अनुभव करते है। प्रगत मानवी जीवन में ' ईश्वर ' को नैतिक अधिष्ठान प्राप्त है। इस जीवन को सामाजिक प्रतिष्ठा है और निजी स्तर पर अध्यात्मिक अनुभूति का आधार धर्म होता है।
श्री पञ्च रामानंदीय निर्मोही अखाडा के नागा संत समर्थ श्री रामदास स्वामी जी ने अध्यात्म को केन्द्रित करते हुए 'वैज्ञानिक संशोधन पध्दति' विकसित की है। " श्री मत दासबोध " तथा " मनाचे श्लोक " इन ग्रंथो ने अपसमज,अपश्रध्दा,प्रमाद,भ्रम-आभास-चिंता-क्लेष-भय से मनुष्य की ज्ञानप्रक्रिया को शुध्द किया है। निजी दुजाभाव-पूर्वग्रह,मनुष्य सुलभ अपसमज,अशुभ संकेत इनसे मुक्त कर आतंरिक शोध के द्वारा अंतर्मल को शुध्द किया है।निष्क्रिय प्रारब्धवाद-दैववाद को पौरुषयुक्त-पराक्रमयुक्त जीवन जीने की विधायक वृत्ती (मानसिकता) मनुष्य में विज्ञानं से पूर्व संतो ने निर्माण की। किसी भी प्रकार की श्रध्दा जब सांप्रदायिक या पंथनिष्ठ बन जाती है तब वह अंधश्रध्दा बनने का संभव होता है।इसलिए श्रध्दा को सद्विवेक बुध्दी के सहकार्य से और व्यापक,सर्वसमावेशक सहिष्णु दृष्टिकोण की साथ मिली तो सत्य " सनातन " है क्यों की वह " नित्य नूतन " है। अपने निजी स्वभावधर्म के अनुसार तथा ईश्वरी अनुग्रह के अनुसार अनुभूति मिलती है। केवल बुध्दिवाद से समस्या का समाधान, यह आग्रह भी वास्तविक बुध्दिवाद का अभाव दर्शाता है। और यह भी एक अंधश्रध्दा ही है।
कार्याकारण भाव तथा तात्विक भूमिका का अधिष्ठान,दृष्टिकोण,परंपरा का वर्तन को अंधश्रध्दा नहीं कहा जा सकता। ईश्वर अस्तित्व, संतो के अनुभव पर आत्मा-परमात्मा,अमरत्व,परलोक कल्पना,पूर्व जन्म और पुनर्जन्म, कर्माधारित्त पाप-पुण्य, विवेक को अंधश्रध्दा नहीं कही जा सकता। बुध्दिवाद व विज्ञान के नामपर धर्म के आधारभूत गृहीत तत्वों का तात्विक विश्लेषण किये बिना उसका उच्छेदन करना बुध्दिवादी विचारप्रक्रिया नहीं है। सभी धार्मिक श्रध्दा अंधश्रध्दा ही होती है ? ऐसा एकांगी,पूर्वग्रहदुषित मतप्रदर्शन कर सनातनी धार्मिक श्रध्दाओंको नकारना हिंदुत्व पर अन्याय है।
विज्ञान से अधिक धर्म का निकट का सम्बन्ध नीति से है। इसमें मानवी आचार संहिता लागु होती है। मात्र नीति का किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है ऐसे अधर्म को धर्म नहीं कहा जा सकता।व्यक्ति-समाज को ध्येयदृष्टि प्रदान करना,आचार धर्म का नियमन-नियंत्रण-मार्गदर्शन करना यह नीति का प्रधान कार्य है। प्रगतिशील मानव को नैतिकता का आदरभाव होता है। नैतिक वर्तन के लिए कोई सक्ती-दबाव या भय नहीं होता। सद्विवेक बुध्दी को आदेश या समाजहित की दृष्टी से नैतिकता के प्रति पावित्र्यभाव-आदरभाव प्रकट होता है। धर्मग्रन्थ,इष्टदेव, धर्मगुरु,धर्मपीठ,धर्म क्षेत्र,तीर्थक्षेत्र को ईश्वरी श्रध्दा से स्वीकार करने के कारन नैतिक वर्तन में परिवर्तन होता है,प्रेरणा मिलती है। परहित बुध्दी,भूतदया,परोपकार,मैत्री,करुणा जैसे नैतिक वर्तन की प्रेरणा मिलती है।
प्राचीन मानवी जीवन में नीति का अभाव था। उनकी श्रध्दा शक्ति को अधिसत्ता प्रदान कर अनुशासन के लिए धार्मिक आदेश की अवज्ञा से पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक का चक्र बना। परम्परानिष्ठ वर्तन विवेकशुध्द नीति से भिन्न होता है। विभिन्न प्रकार के यज्ञ याग,होम-हवन,व्रत-उपवास,दान-धर्म में नैतिक मूल्यों की अनदेखी नहीं होती। यह सभी कार्य निष्काम बुध्दी से किये जाये तो हरेक विधि विधान का फल तो मिलना ही है परन्तु, "..... फल प्राप्त्यर्थं " संकल्प से विवेक कार्य अंधश्रध्द बन जाता है। दुसरी ओर धार्मिक आस्था के कारन स्वयं प्रेरणा,आत्मीयता से की गई कृति से धर्म भाव और नैतिक विवेक का अधिष्ठान तयार होता है और निति धार्मिक अनुभूति के विकास का श्रेष्ठ साधन बन जाती है।
सनातन धर्म में भेद बुध्दी नहीं है। सद्धर्म में सर्वहित बुध्दी प्रमाण मानी गयी है। केवल मनुष्य के ही लिए नहीं अपितु,सजीव-निर्जीव सृष्टि से प्रेम, मित्रता,अंतःकरण विकास-शुध्दी का प्रयास कहा गया है। अन्य धर्मो में ऐसा नहीं है, परधर्मियो से असहिष्णु-द्वेष युक्त वर्तन जो अधार्मिक है। परन्तु,धर्म के नाम पर मानवी हत्या,पशु हत्या करने से भूतदया-करुणा का अव्हेर होता है। सनातनी संत-धर्माचार्यो ने मनुष्य की प्रज्ञा- नैतिक विवेकशक्ति को आवाहन किया है।उन्होंने निजी-सामाजिक,धार्मिक-धर्मिकेतर व्यवहार में ज्ञाननिष्ठ, नीतिमान रहनेपर भार दिया है।पूजा,प्रार्थना,व्रताचरण इन बाह्य साधनों के अतिरिक्त, नीति मूल्यों पर आधारित " अंतरंग साधना " जो अनेकेश्वर के स्थानपर एक मुख्य देव ( ईश्वर ) का परिचय कैसे करे, आत्माराम का परिचय दिया है। " एको वशी सर्वभुतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति " (कठ.2.2.12) एक बार यह दृष्टी प्राप्त हुई तो धर्म और नीति का द्वैत भाव दूर हो जाता है। अन्य को पीड़ा न पहुंचना,हिंसा न करना, 'सर्वभुती भगवद्भाव' रखना,करुनायुक्त अंतःकरण से सहकार्य करना यह धर्म के लक्षण है। संत-महात्माओ में मानवी कल्याण की दृष्टी से शाश्वत नैतिक मूल्यों का परिशीलन करते हुए मनुष्य को सत्य धर्म की प्राप्ति होने लगती है। प्राचीन प्राकृतिक शक्तियों के अघोरी उपायों के विकल्प के रूप में ईश्वरीय शक्ति की बहिर्मुख भक्ति को अंतर्मुखी करनेवाली उपासना से विवेकनिष्ठ नीतिधर्म का निर्माण होता है।
सन्दर्भ:-धर्माचे तत्वज्ञान-ले. श्री.ज.वा.जोशी कांटिनेंटल प्रकाशन-पुणे से साभार
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