भगवान बुध्द की वंश परंपरा इक्ष्वाकु कुल की लिच्छवी शाखा से जुडी है। तो, प्रभु श्रीराम इक्ष्वाकु कुल की रघुकुल शाखा में अवतरित हुए थे।भगवान बुध्द सुर्यवंशी क्षत्रिय लिच्छवी कुल के दीपक है जो,श्रीराम जी के रघुकुल जैसे इक्ष्वाकु कुल की ही शाखा है।इसलिए उन्हें वैष्णव पंथ की शाखा से जोड़कर ही देखा जाता रहा है। उनके विचारो का प्रभाव विश्व में गया परन्तु विश्वव्यापक भारतीय सत्ता हिन्दू सम्राट अशोक तक ने प्रसारित नहीं की उलटे बृहत्तर भारत सत्ता का र्हास हुवा।दुर्भाग्य है की,चीन जाते हुए बृहत्तर भारत की सीमाए बढाने का गणित हमने नहीं बनाया।विश्व में जिनके तीर्थ भारत में है, वह हिंदुत्व की परिघी में होने चाहिए।यही बृहत्तर भारत और हिंदुत्व की परिचायक है।
सिकंदर के पश्चात् आये रोमन आक्रमणकारी शक सम्राट मिनैंडर ने सिकंदर की पंजाब से आक्रमण की भूल को सुधारकर वैष्णव पंथियों में भेद उत्पन्न करने बुध्द मत का झोला पहनकर आक्रमण करने मगध गया। उसे बुध्द समझकर बृहद्रथ ने सहयोग किया और फिर उसने अपना वास्तव स्वरुप प्रकट किया। भयंकर रक्तपात के बिच बुध्द मतावलंबीयो को वैष्णवों से अलग करने की कूटनिति अपनाई.बद्रिनाथ जी की मूर्ति उखाड़कर नारदकुंड में फेंक दी। श्रीराम-कृष्ण की जन्मभूमि को घेर कर ध्वस्त किया। वैष्णव मंदिरोंको तोडा,नरमुंड काटकर रक्तप्राशन किया। उसे चीनी बुध्दो ने आश्रय दिया और अभय माँगा। उसकी स्तुति में "मिलिंद पन्ह" ग्रन्थ लिखा। {संदर्भ Study of History by Toynbee Voll. v P.182 } इसका यतार्थ यह नहीं है की, बुध्द मत का मिनैण्डर पर प्रभाव पड़ा था। प्लूटार्क लिखता है, 'उसके धम्म स्वीकार करने के पीछे राजनितिक उद्देश्य था। परराष्ट्रनिष्ठां के कारण धम्म का ह्रास हुवा और चीन भागना पड़ा। मान्शासन और प्रचंड अमानवीय हिंसा का प्रतिक मिनैंडर ने बुध्द मत को मातृभूमि में ही निष्प्रभ किया।"
फिर कुषाण आये। सन १२० में कुषाण राजा कनिष्क ने बुध्द भिक्खुओ की परिषद लेकर बौध्दो को संगठित रूप दिया। हीनयान उप पंथ की स्थापना कर संस्कृत का स्वीकार किया। कुषाण सम्राट कनिष्क का स्वागत किया। शक,कुषाणों की तरह आक्रान्ता हुण मिहिरगुल आये उन्होंने "तक्षशिला विद्यालय" तोड़ दिया। बाद में उसने वैदिक पंथ का स्वीकार किया था। उसे राजा यशोधर्मा ने ५२८ में मंदसौर में पकड़ा तो वह वैष्णव बन जाने के कारन बौध्द विदेशियों ने आनंद व्यक्त किया था। भारतीय बौध्दो ने चीनी बौध्दो की सहायता लेने के यह प्रमाण कहता है की,वैष्णवों में दिवार खडी करने में उनकी भूमिका थी। विदेशियों की सहायता लेकर भारतीय पंथ जब स्वकियो पर आक्रमण करने लगा तब चीन की "हाहा" नदी सीमा पर संग्राम हुवा और चीनी परास्त हुए। तब एक अनाक्रमण संधि भी हुई थी।
इस्लामी आक्रमण काल में चीनी प्रवासियों ने पलायन किया और बामियान में बुध्द मठों का विध्वंस हुवा। अबुल फजल ने "आइने अकबरी" में बामियान की २,००० गुन्फाओ में १२,००० शिल्प कला के भवन देखने का वर्णन किया है। खारोष्टि लिपि में लिखा ग्रन्थ भी था। इस्लामी आक्रमण काल में राष्ट्र की दुर्गति,धर्मान्तरण बुध्द विचार का अहिंसक प्रभाव था। परन्तु चीन ने साम्यवादी बनकर सशक्त बनते समय बुध्द पंथ को भी किनारे कर दिया। आज भारत देश की दुरावस्था और विश्व में इस्लाम के विस्तार के लिए अहिंसक धम्म कारन बना यह प्रमाणित होता है। चीनी प्रतिनिधि मंडल वू के नेतृत्व में भारत आ जाने के पश्चात् मोपला काण्ड हुवा और खुला अलगाव वाद प्रकट हुवा। विभाजन पश्चात् चीनी नेता हो ची मिन्ह के इशारे पर कश्मीर १/३ घुसपैठ हुई।
कहने का तात्पर्य यह है की, बुध्द पंथ ने चीन में विस्तार के बजाय स्वदेश में संकट ही खड़े किये।बृहत्तर भारत का बर्मा टुटा,श्रीलंका विघटित हुवा। नेपाल पास होकर दूर हुवा इसके लिए चीन जिम्मेदार है। आज यह सभी राज्य तथा आश्रयदाता चीन भी इस्लामी साम्राज्य वाद से झुज रहा है। विश्व इस्लाम के विरोध में संगठित होने के बजाय पाकिस्तान-अफगानिस्तान को सहयोग कर रहा चीन, शेष भारत को घेर चूका है और यह कल्पना कभी भगवान बुध्द ने की होती तो चीन की तरह सशक्त,सशस्त्र भारत होता।
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वैष्णव पंथ बौध्द धम्म को मिली वैश्विक मान्यता के कारन यदि हिंदुत्व से भिन्न कहा जाता है तो,वैश्विक हिंदुत्व के विनाश में चीन की भूमिका स्पष्ट होती है।
इस्वी सन से बुध्द धम्म का प्रसार करने बृहत्तर भारत से चीन गए मग ब्राह्मण प्रचारको को प्रसिध्दी नहीं मिली। चीनी सम्राट मिंग को स्वप्न में महान सत्पुरुष का दर्शन हुवा और प्रधान की सलाह पर बुध्द धम्म की उत्कंठा में मिंग ने कुछ आचार्य भारत वर्ष में भेजे। उनकी विनती पर भारत से धम्मोपदेशक चीन जाने लगे। भिन्न १३ चीनी ग्रंथो में इसका वर्णन आया है। मिंग के निमंत्रण पर सर्व प्रथम गांधार निवासी " काश्यप मातंग " तिब्बत के रस्ते चीन गए। स्थानीय लिपि आत्मसात कर अनेक ग्रंथो का अनुवाद चीनी भाषा में किया। काश्यप के अनुयायी धर्मरक्ष ने काश्यप के पश्चात् दीक्षा कार्य जारी रखा। तिब्बती ग्रंथो के अनुसार दूसरी शताब्दी में आर्यकाल,सुविनय,धर्मकाल,महाबल चीन गए। वहा के कन्फ्युशियस धर्मावलम्बीयों के सत्ता परिवर्तन काल में बुध्द मत का विलोप हो जाता था और उन प्रसारकों के भारत वर्ष में वापसी के रास्ते बंद हो जाते थे,बिना अनुमति वापस निकले धर्मक्षेम को मार डाला गया था।
मध्य आशिया के खोतान प्रान्त पर हुए चीनी आक्रमण के पश्चात् अनेक बंदी चीन ले गए उनमे थे " कुमारजीव " (इ.सन ३४४-४१३) थे जिन्होंने महायान पंथ के संस्कृत ग्रंथो का चीनी में अनुवाद किया,यात्री " फाहियान " उनका शिष्य ! कश्मीर का राजपुत्र गुणवर्मा ने श्रमण वृत्ति का स्वीकार कर प्रसार कर अंत चीन में किया। इसके पश्चात् भी धर्मरुची,रत्नमती,बुध्द्शांत आदि ग्यारहवी शताब्दी तक प्रसारक चीन गए।
चीनी प्रवासी फाहियेंन सम्राट चन्द्रगुप्त के कालखंड में तो, युवान च्वांग ठानेश्वर सम्राट हर्षवर्धन के कालखंड में भारत भ्रमण पर आये थे।उन्होंने वैदिक मत के हिन्दू और बौध्द मत के (वैष्णव) हिन्दुओ में सामंजस्य और सहिष्णुता का परस्पर पूरक संबंध देखा था। गुप्त कुल के वंश वैदिक मतावलंबी होते हुए भी नरसिंह गुप्त ने नालंदा में बौध्द मठ स्थापित किया था।
हर्षवर्धन ने वृध्दावस्था में बौध्द मत का स्वीकार करने की मनीषा विदेशी प्रवासी युवान च्वांग के प्रयास पश्चात् व्यक्त की थी। उस समय उनका जो गौरव च्वांग ने किया वह वैदिको को पसंद नहीं आया।इस कालखंड में भले ही वैदिक-बौध्द मतभिन्नता प्रकट हुई हो, राजा हर्ष ने दोनों पंथ मतों में कभी अंतर नहीं किया।हर्ष का चरित्रकार बाण भट्ट वैदिक था उन्होंने भी कही भी बौध्दो के विरुध्द कभी कही भी अनुदार उद्गार नहीं लिखे।
हर्ष चरित्र में अंकित दिवाकर मित्र के आश्रम में हुए मेले में भिक्षु,भागवत पंथी,केश लुंचक,कापालिक,लोकायतिक ऐसे नाना पंथी हिंदुत्व के अंतर्गत आनेवाले संप्रदाय उपस्थित थे, ऐसा वर्णन है।स्वयं सुर्यवंशी हर्ष के वंश में आदित्य कुल दैवत थे और उनके वंश में धार्मिक सहिष्णुता परमोच्च पद पर थी। कौन किस दैवत को भजे,किस पंथ मत की दीक्षा ले पूर्ण स्वतंत्रता थी।हर्ष की भगिनी राज्यश्री बुध्द संघ में प्रविष्ट हुई थी।
युवान च्वांग ने किये वर्णन के अनुसार,हर्ष की सहिष्णुता का दर्शन यहा होता है।हर पांच वर्ष पश्चात् वह विश्वजीत यज्ञ संपन्न कर संपत्ति का दान करता था।ऐसा एक प्रसंग उनकी जीवनी में छठी बार सन ६४३ में आया तब च्वांग प्रयाग में उपस्थित था।वह लिखता है,"इस उत्सव के लिए प्रयाग में विस्तीर्ण मंडप बनाये थे।७५ दिनों तक यह उत्सव संपन्न होता रहा। चार से पांच लक्ष सर्व पंथ मत के लोग उपस्थित थे।प्रथम दिन मंडप में अग्रभाग में भगवान बुध्द की प्रतिमा दुसरे दिन अग्रभाग में सूर्य प्रतिमा तीसरे दिन मुख्य सन्मान की शिव प्रतिमा अग्रभाग में रखी गयी।चौथे दिन बुध्द भिक्षुओ को दान संतर्पण के बाद अगले बीस दिन ब्राह्मण संतर्पण करने के बाद अन्य छोटे पंथ-मत के लिए मुक्तद्वार रखा गया।अंतिम समय निराश्रित,विकलांग ऐसे लोगो को भी संतुष्ट किया गया।" संदर्भ :- Life of Hieun Tsang-By Beal P.83
भारतीय पंथ-मतों में सहिष्णुता का यह प्रचंड दर्शन है।इसका पुनर्विचार करना चाहिए। पाकिस्तान परस्त चीन के विरोध में काफ़िरो को एकछत्र में भारतमाता के चरणों में पूजक बनाना भारतोत्पन्न पंथों के धर्माचार्यो का प्रथम कार्य हो !
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