लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व कोडर ग्राम,वजीरगंज-गोंडा उत्तर प्रदेश में जन्मे महर्षि पतंजलि को शेषावतार कहा जाता है। महर्षि के जन्म पूर्व शरयु ने अपनी चंचलता का त्याग कर कोडर झील का रूप धारण किया था। गोंडिका नामक कन्या सूर्य को अर्ध्य दे रही थी उस समय उनका जन्म हुआ। ऐसी किंवदंती है।
श्री पतंजलि जन्मभूमि न्यास समिति ने केंद्र और राज्य सरकारों को बाइस बार अड़तालीस प्रस्ताव भेजे है परंतु,पर्यटन स्थल की श्रेणी नहीं मिली।
रत्नागिरी के निर्बंध बंदिवास में योगाभ्यासी,ग़दर क्रांतिकारी बाबाराव सावरकरजी के बंधू वीर विनायक दामोदर सावरकरजी ने "अखिल हिन्दू ध्वज" का निर्माण किया था। जो रा.स्व.संघ की जननी अखिल भारत हिन्दू महासभा का पक्ष ध्वज बनकर रहा है। कुछ संगठन इस ध्वज का स्वीकार करते है,प्रसार माध्यम भी इसकी महत्ता न जानते हुए उसे उनका ध्वज मानते है।इस ध्वज को योगगुरु बाबा रामदेव की राष्ट्रीय स्वातंत्र्यवीर सावरकर स्मारक,शिवाजी पार्क,दादर-मुम्बई आएं तब,अखिल भारत हिन्दू महासभा पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी के भतीजे स्वर्गीय विक्रमराव नारायणराव सावरकरजी ने उनके हाथ में अखिल हिन्दू ध्वज सौपकर योग का वैश्विक प्रसार करने का दायित्व सौपा था।
इस अखिल हिन्दू ध्वज पर अंकित कुण्डलिनी की महत्ता विशद करते हुए वीर सावरकरजी ने कहा है," साधको को अलौकिक अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त होता है।जिसे योगी कैवल्यानन्द कहते है।अद्वैती ब्रह्मानंद कहेंगे या भौतिक परिभाषा जाननेवाले केवल परमानंद कहेंगे। ...... किसी का विश्वास विशिष्ट अवतार पर,पैगम्बर पर,ग्रंथों पर या ग्रंथिक मतान्तरो पर हो या न हो चार्वाक,वैदिक,सनातनी,जैन,बौध्द,सिक्ख,ब्राह्मो,आर्य,इस्लाम आदि सभी धर्म पंथों को कुण्डलिनी मान्य है। ..... योगसाधना का विचार पूर्णतः विज्ञाननिष्ठ है और भारतवर्ष ने ही विश्व को प्रदान किया यह दान है। बंदिवास में मैंने योग की उर्जा का अनुभव किया है।" (सन्दर्भ :- हिन्दू ह्रदय सम्राट भगवान सावरकर ले.स्व.रा.स.भट )
वीर सावरकर जी शक्ति और शांति का मार्ग दिखाते समय हिन्दू मतावलंबियों की अहिंसा,सहिष्णुता और दया की विकृति पर भी कोड़े बरसते है।श्रीमद भगवद्गीता में भगवान द्वारा प्राप्त ज्ञानपर चलनेवाले वह आधुनिक अर्जुन थे। " अत्याचारी,आक्रामको का शमन और दुर्बल एवं पीड़ित मनुष्यों के प्रति करुणा का व्यवहार, उनकी सेवा और उनके साथ हुए अन्यायों का निवारण और भूल का परिमार्जन ही सावरकर चिंतन का सार है।"
सन १९२८ अगस्त में वीर जी ने ध्वज के विषय में लिखा, " कुंडलिनी का यह संकेत चिन्ह हिन्दू धर्म एवं हिन्दुराष्ट्र के वैदिक कालखंड से लेकर आज तक के और आज से लेकर युगांत तक के महत्तम ध्येय को सुस्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करेगा ; स्वस्तिक प्राचीन है,किन्तु मनुष्य निर्मित है।कुंडलिनी प्रकृति की देन है और वह शास्त्रीय तथा शास्त्रोक्त संकेत है।इसलिए कृपाण,कुण्डलिनी,स्वस्तिक अंकित ध्वज को ही हिन्दुध्वज माना जाए।कृपाण और कुंडलिनी से दो चिन्ह क्रमशः भुक्ति और मुक्ति ; शक्ति और शांति ; भोग तथा योग ; आचार-विचार,कर्म और ज्ञान, सत और चित,प्रवृत्ति और निवृत्ति इनके ही प्रतिक रूप है और उनमे सुचारू रूप से समन्वय बनाये रखनेवाले प्रतिक है।" ( सन्दर्भ :- मासिक जनज्ञान फरवरी १९९७ पृष्ठ २७ ले.स्व.बालाराव सावरकर )
अरबी व्याकरण के अनुसार,लाम अक्षर ,'वाउ' अक्षर में बदल जाता है। तब अलिफ-लाम-मीम मिलकर अलिफ-वाउ-मीम बन जाता है। अलिफ + वाउ मिलकर "ओ" का उच्चारण में मीम मिलाने पर अलिफ+वाउ +मीम = ओम बन जाता है। ॐ जो,ईश्वर का सर्व श्रेष्ठ मुख्य नाम है। अर्थात कुरान में सिपारे या सूरत के प्रारम्भ में कई जगह इसका उल्लेख है।
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